
छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट ने हाल ही में संपत्ति के उत्तराधिकार से जुड़ा एक ऐसा फैसला सुनाया है, जिसने बेटियों के अधिकार से संबंधित कानून के पुराने और नए नियमों के अंतर को एक बार फिर चर्चा में ला दिया है। कोर्ट ने स्पष्ट किया है कि अगर किसी हिंदू पिता की मृत्यु 9 सितंबर 1956 से पहले हुई थी, तो उसकी बेटी उस संपत्ति में हिस्सेदारी का दावा नहीं कर सकती। यह निर्णय हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 (Hindu Succession Act, 1956) के दायरे और सीमाओं को लेकर पूरी तरह से क़ानूनी तौर पर आधारित है।
Table of Contents
1956 से पहले लागू था मिताक्षरा कानून
फैसले में जस्टिस नरेंद्र कुमार व्यास ने साफ बताया कि वर्ष 1956 से पहले भारत में हिन्दू परिवारों की संपत्ति के मामलों को ‘मिताक्षरा कानून’ के तहत निपटाया जाता था। इस पुराने प्रणाली के अनुसार, संपत्ति का उत्तराधिकार केवल बेटों के नाम पर होता था और बेटियों को उसका कोई कानूनी हक़ नहीं दिया जाता था।
जब 1956 में Hindu Succession Act लागू हुआ, तब पहली बार बेटियों को पैतृक संपत्ति में बेटे के समान अधिकार मिला। लेकिन कोर्ट ने यह भी कहा कि यह अधिनियम केवल उन्हीं मामलों पर लागू होगा जो उसके लागू होने के बाद उत्पन्न हुए हों। जिन परिवारों में पिता की मृत्यु 1956 से पहले हो चुकी थी, वे मिताक्षरा कानून के अनुसार ही माने जाएंगे।
सरगुजा जिले का पुराना विवाद बना उदाहरण
छत्तीसगढ़ के सरगुजा जिले से आए एक केस ने इस मुद्दे को फिर सुर्खियों में ला दिया है। यह मामला रगमानिया नामक महिला की याचिका से जुड़ा था, जिन्होंने 2005 में सिविल कोर्ट में याचिका दायर कर अपने पिता की संपत्ति में हिस्सेदारी की मांग की थी। हालांकि, यह ध्यान देने योग्य है कि उनके पिता की मृत्यु साल 1950-51 में ही हो गई थी यानी Hindu Succession Act लागू होने से काफी पहले।
निचली अदालत ने रगमानिया की याचिका को खारिज कर दिया था, और अपील कोर्ट ने भी इसी फैसले को सही ठहराया। आखिरकार, हाईकोर्ट ने भी यह कहते हुए फैसला सुनाया कि चूंकि पिता की मृत्यु 1956 से पहले हुई थी, इसलिए बेटी को कानूनी तौर पर हिस्सेदारी का अधिकार नहीं बनता।
कोर्ट ने सुप्रीम कोर्ट के पुराने फैसलों का हवाला दिया
अपने निर्णय में छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट ने सुप्रीम कोर्ट के 2020 और 2022 के फैसलों का हवाला दिया, जिनमें स्पष्ट किया गया था कि अगर पिता की मृत्यु Hindu Succession Act लागू होने से पहले हुई थी, तो उसकी पैतृक संपत्ति पर पूरा अधिकार केवल बेटे को मिलेगा।
कोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया कि अगर संपत्ति पिता की खुद की अर्जित संपत्ति (self-acquired property) है, तो उसकी मृत्यु के बाद वह बेचने या बांटने के लिए स्वतंत्र होती है। इस मामले में भी अदालत ने पाया कि संपत्ति पिता की थी और उनकी मृत्यु के बाद वह बेटे को ही ट्रांसफर हो गई।
बेटियों के लिए कानून में अब भी राहत है
हालांकि बेटियों को इस मामले में राहत नहीं मिली, लेकिन कानून में बदलाव के बाद कई परिस्थितियों में उन्हें संपत्ति पर बराबरी का अधिकार दिया गया है। साल 2005 में हुए संशोधन के बाद अब बेटियां भी पुत्रों की तरह ‘सहभाजन’ (coparcener) मानी जाती हैं और उन्हें पैतृक संपत्ति में समान अधिकार प्राप्त हैं।
इसी तरह, सुप्रीम कोर्ट ने 2022 में यह भी कहा था कि अगर किसी पिता की मृत्यु 1956 से पहले हुई थी और उसके कोई पुत्र नहीं थे, तो संपत्ति बेटियों को ही मिलेगी। इस प्रावधान ने बरसों से चली आ रही असमानता को कुछ हद तक संतुलित किया है।
सामाजिक और कानूनी दृष्टि से मायने
यह निर्णय केवल कानूनी तकनीकी बिंदु नहीं है, बल्कि समाज के लिए एक अहम संदेश भी देता है कि संपत्ति विवादों में कानून की तारीखें और अधिनियम के प्रभाव का समय बहुत मायने रखता है। यह फैसला यह दिखाता है कि कानून ऐतिहासिक घटनाओं और उनके प्रभावों को ध्यान में रखकर आगे बढ़ता है।
आज जब महिलाएँ हर क्षेत्र में बराबरी की ओर बढ़ रही हैं, तो यह समझना भी जरूरी है कि कानूनी अधिकार भी समय और परिस्थिति के अनुसार विकसित होते हैं। यह फैसला पुराने मामलों के लिए स्पष्टता लाता है, जबकि नए कानून बेटियों के अधिकारों को और मजबूत बनाते हैं।
















